भू-स्खलन एक
ऐसी प्राकृतिक आपदा व परोक्ष रूप से मानव जनित आपदा है जिसे स्पष्ट रूप से
परिभाषित करना और इसके व्यवहार को शब्दों में बांधना मुश्किल कार्य है। परंतु फिर
भी पूर्व के अनुभवों, इसकी बारंबारता (Repitition) और इसके घटने को प्रभावित करने वाले कारकों जैसे- भू-विज्ञान, भू-आकृतिक कारक, ढ़ाल, भूमि
उपयोग, वनस्पति आवरण और मानव क्रियाकलापों के आधार पर भारत
को विभिन्न भूस्खलन क्षेत्रों में बाँटा गया है।
भू-स्खलन की स्थिति में चट्टान समूह खिसककर ढाल से नीचे गिरता है। सामान्यतः भू-स्खलन, भूकंप, ज्वालामुखी फटने; सुनामी और चक्रवात की तुलना में कोई बड़ी घटना नहीं है परंतु इसका प्राकृतिक पर्यावरण और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अन्य आपदाओं के विपरीत, जो आकस्मिक, अननुमेय तथा वृहत स्तर पर दीर्घ एवं प्रादेशिक कारकों से नियंत्रित है, भू-स्खलन मुख्य रूप से स्थानीय कारणों से उत्पन्न होते हैं। इसलिए भू-स्खलन के बारे में आंकड़े एकत्र करना और इसकी संभावना का अनुमान लगाना न सिर्फ कठिन अपितु काफी खर्चीला काम है।
भू-स्खलन को निम्नांकित क्षेत्रों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्र- ज्यादा अस्थिर हिमालय की युवा पर्वतशृंखलाएँ, अंडमान और निकोबार, पश्चिमी घाट और नीलगिरि में अधिक वर्षा वाले क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, भूकंप प्रभावी क्षेत्र, और अत्यधिक मानव-क्रियाकलापों वाले क्षेत्र, जिसमें सड़क और बांँध निर्माण इत्यादि आते हैं, अत्यधिक भू-स्खलन सुभेद्यता क्षेत्रों में रखे जाते हैं।
2. अधिक सुभेद्यता क्षेत्र- अधिक भू-स्खलन सुभेद्यता क्षेत्रों में भी अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्रों से मिलती-जुलती परिस्थितियाँ हैं। दोनों में अंतर है, भू-स्खलन को नियंत्रण करने वाले कारकों के संयोजन, गहनता और बारंबारता का। हिमालय क्षेत्र के सारे राज्य और उत्तर-पूर्वी भाग (असम को छोड़कर) इस क्षेत्र में शामिल हैं।
3. मध्यम और कम सुभेद्यता क्षेत्र- पार हिमालय के कम वृष्टि वाले क्षेत्र लद्दाख और हिमालय प्रदेश में स्पीति, अरावली पहाड़ियों में कम वर्षा वाला क्षेत्र, पश्चिमी व पूर्वी घाट के व दक्कन पठार के वृष्टि छाया क्षेत्र ऐसे इलाके हैं, जहाँ कभी-कभी भू-स्खलन होता है। इसके अलावा झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, गोवा व केरल में खदानों और भूमि धंसने से भू-स्खलन होता रहता है।
4. अन्य क्षेत्र- भारत के अन्य क्षेत्र विशेषकर राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पं. बंगाल (दार्जिलिंग जिले को छोड़कर) असम (कार्वी अनलांग को छोड़कर) और दक्षिणी प्रांतों के तटीय क्षेत्र भू-स्खलन युक्त हैं।
भू-स्खलन की स्थिति में चट्टान समूह खिसककर ढाल से नीचे गिरता है। सामान्यतः भू-स्खलन, भूकंप, ज्वालामुखी फटने; सुनामी और चक्रवात की तुलना में कोई बड़ी घटना नहीं है परंतु इसका प्राकृतिक पर्यावरण और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अन्य आपदाओं के विपरीत, जो आकस्मिक, अननुमेय तथा वृहत स्तर पर दीर्घ एवं प्रादेशिक कारकों से नियंत्रित है, भू-स्खलन मुख्य रूप से स्थानीय कारणों से उत्पन्न होते हैं। इसलिए भू-स्खलन के बारे में आंकड़े एकत्र करना और इसकी संभावना का अनुमान लगाना न सिर्फ कठिन अपितु काफी खर्चीला काम है।
भू-स्खलन को निम्नांकित क्षेत्रों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्र- ज्यादा अस्थिर हिमालय की युवा पर्वतशृंखलाएँ, अंडमान और निकोबार, पश्चिमी घाट और नीलगिरि में अधिक वर्षा वाले क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, भूकंप प्रभावी क्षेत्र, और अत्यधिक मानव-क्रियाकलापों वाले क्षेत्र, जिसमें सड़क और बांँध निर्माण इत्यादि आते हैं, अत्यधिक भू-स्खलन सुभेद्यता क्षेत्रों में रखे जाते हैं।
2. अधिक सुभेद्यता क्षेत्र- अधिक भू-स्खलन सुभेद्यता क्षेत्रों में भी अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्रों से मिलती-जुलती परिस्थितियाँ हैं। दोनों में अंतर है, भू-स्खलन को नियंत्रण करने वाले कारकों के संयोजन, गहनता और बारंबारता का। हिमालय क्षेत्र के सारे राज्य और उत्तर-पूर्वी भाग (असम को छोड़कर) इस क्षेत्र में शामिल हैं।
3. मध्यम और कम सुभेद्यता क्षेत्र- पार हिमालय के कम वृष्टि वाले क्षेत्र लद्दाख और हिमालय प्रदेश में स्पीति, अरावली पहाड़ियों में कम वर्षा वाला क्षेत्र, पश्चिमी व पूर्वी घाट के व दक्कन पठार के वृष्टि छाया क्षेत्र ऐसे इलाके हैं, जहाँ कभी-कभी भू-स्खलन होता है। इसके अलावा झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, गोवा व केरल में खदानों और भूमि धंसने से भू-स्खलन होता रहता है।
4. अन्य क्षेत्र- भारत के अन्य क्षेत्र विशेषकर राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पं. बंगाल (दार्जिलिंग जिले को छोड़कर) असम (कार्वी अनलांग को छोड़कर) और दक्षिणी प्रांतों के तटीय क्षेत्र भू-स्खलन युक्त हैं।
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